Tuesday 17 November 2015

करवाचौथ की टेंशन



करवाचौथ की टेंशन
यूं तो करवाचौथ, दिवाली और भैयादूज हर बार ही घर का बजट खराब कर देते हैं क्योंकि यह तीनों त्योहार 15 दिनों के अंतराल में ही पड़ जाते हैं पर इस बार खास बात यह थी कि करवाचौथ 30 अक्तूबर को पड़ रहा था यानि कि महीने के अंतिम दिनों में, जब जेब का बुरा हाल होता है। 29 अक्तूबर को मैं  जब शाम को रोज कि तरह घर आया तो मेरी पत्नी ने स्वभाव के विपरीत मुस्कराहट से किवाड़ खोला। पहले पानी तथा फिर फटाफट चाय भी पिलाई। मेरी हालत ठीक वैसी ही थी जैसी कि ईद से पहले दिन बकरे की  होती है। हमारे देश में किसी भी सभ्य पत्निव्रता पुरुष में इतनी हिम्मत नहीं कि वो पत्नी का जन्म दिन, शादी की सालगिरह अथवा करवाचौथ को भूल जाए। तो मर्यादा निभाते हुए चाय के पश्चात मैंने पूछ लिया के सुबह के लिए फेनी, फल, मिठाई आदि क्या-क्या लाना है। तो वो बोली चलो मार्केट चल लेते हैं वहीं देख लेंगे। मैं तो पहले ही अपने ऊपर आए खतरे को भाँप चुका था। लेकिन मैंने खुशी खुशी हामी भर दी। मार्केट सजी हुई थी ज़ोरों शोरों से ख़रीदारी चल रही थी। ज्वेल्लेरी की दुकान के पास से गुजरते वक्त मेरी सांस धौंकनी की  तरह चल रही थी लेकिन वो पाँच मीटर का सफर आराम से कट गया। शायद वो जानती थी कि सोना या हीरा तो मास्टर जी अपने कपड़े बेच कर भी नहीं दिलवा सकते। आगे चूड़ियों की  दुकान पर भीड़ जमा थी। रंग बिरंगी चूड़ियाँ सब के मन को लुभा रही थी। सो मेरी पत्नी भी चूड़ियाँ देखने लगी। कुछ देर बाद उसने सुंदर सी चूड़ियाँ पसंद कर ली तथा भावतौल के बाद मुझे तीन सौ रुपए देने को कहा पैसे देकर हम आगे चल पड़े हलवाई की दुकान की  और। लेकिन रास्ते में जगह जगह टेंट लगे हुए थे और मेहंदी लगवाने वाली पतिव्रता नारियों की  कतारें लगी हुई थी। मेरी पत्नी ने भी मेहंदी लगवाने कि इच्छा प्रगट की। मैंने हामी भरदी। लगभग एक  घंटे के बाद मेरी पत्नी का नंबर आया मेहंदी लगवाने के बाद उसने मुझ पर पूरी दयादृष्टि दिखाते हुए कहा बस चार सौ रुपये देदो आधे आधे हाथों पर ही लगवाई है। मेहंदी लगवाने के बाद अब दस बज चुके थे भूख भी लग रही थी परंतु अब घर जाकर खाना तो बनाया नहीं जा सकता था क्योंकि दोनों हाथों पर मेहंदी लगी हुई थी। सो मैंने एक रैस्टौरेंट से खाना पैक करवाया और सुबह के लिए मठी, फेनी, मिठाई आदि लेकर घर आ गए। तभी मेरी पत्नी का मोबाइल बजा। मेहंदी लगी होने के कारण फोन मैंने उठाया, मैसेज आया था कि आप के द्वारा दिये गए ऑर्डर कि साड़ी डिस्पैच कर दी गयी है कृपया डिलीवेरी के वक़्त 2500/- का भुगतान करें। मेरा कंठ सूख चुका था नींद उड़ चुकी थी मैंने चुपचाप वो मैसेज श्रीमतीजी को पढ़वा दिया। मेरे चेहरे से वो मेरी मनोदशा समझ चुकी थी लेकिन 55 कि आयु में भी मेनका चरित्र द्वारा मुझे सहज कर चुकी थी।
अगले दिन सुबह सूर्योदय से पहले मेरी पत्नी खा-पीकर व्रत धारण कर चुकी थी। मैंने बाहर से सुबह का अखबार उठाया और उसमें जो कुछ पंफ्लेट भी थे फटाफट डस्टबिन में डाले क्योंकि वो सारे ही करवाचौथ की बम्पर सेल के बारे में थे। इसके बाद मैं अपने नित्य कर्म में लग गया। श्रीमती जी की मेहंदी खिल उठी था चेहरे पर चमक थी। तभी वो मेरे पास आकर बैठ गयी और मुस्कराते हुए बोली कुछ पैसे दे दो ब्यूटी पार्लर जाना है मैंने कहा, तुम बहुत सुंदर लग रही हो ब्यूटी पार्लर जाकर क्या करोगी? लेकिन मेरी इस घिसी पिटी तारीफ का उस पर कोई असर नहीं हुआ वो बोली कि आज उसने 2100 वाला पैकेज 1000 में कर रखा है और फिर मैं यह सब कुछ आपके लिए ही तो कर रही हूँ। मैंने चुपचाप 1000 रुपये निस्वार्थ भाव से उसके हाथ में थमा दिये। मेरी भूख उड़ चुकी होने के कारण मेरा वर्त अपने आप ही हो गया था। फिर भी मेरी पत्नी लाखों में एक थी उसे फिजूल खर्च करने कि आदत बिलकुल नहीं थी। केवल पूरे साल में 2 या 3 अवसरों पर ही तो ऐसा होता था। और वो भी इस लिए कि एक चरित्रवान नारी की सारी अपेक्षाएँ अपने पति से ही तो होती हैं। यही सोच कर मैं काफी हद तक संतुष्ट हो गया था।  वो ब्यूटी पार्लर चली गयी। मैं मन ही मन सोच रहा था कि भारतीय नारियां पति की दीर्घायु के लिए कितनी तपस्या करती हैं। तभी मैंने इंटरनेट खोला और विभिन्न देशों के लोगों की औसत आयु देखने लगा मैं यह देख कर हैरान था कि भारत औसत आयु के मामले में विश्व में 136वें क्रम पर था। भारत में प्रति व्यक्ति औसत आयु मात्र 66.4 वर्ष थी जबकि यूरोपियन देशों की  82 वर्ष। और हैरानी कि बात यह कि भारत में ही पुरुष कि औसत आयु 64.7 वर्ष थी जबकि महिलाओं की 68.2 वर्ष। दोपहर के 2 बज गए थे मेरी पत्नी ब्यूटी पार्लर से लौट चुकी थी और अब शृंगार की तैयारी में जुट गयी थी। 3 बजे उसने पूजा के लिए निकलना था और मैंने अपने काम पर। फिर भी में यह चाहता था कि काम पर जाने से पहले एक बार पूर्ण सुसज्जित अपनी पत्नी को देख लूँ। सो ईश्वर ने मेरी मनोकामना पूर्ण कर दी। में अपने काम के लिए निकल चुका था। रास्ते में हर आयु वर्ग कि नारियां पूर्ण रूप से सुसज्जित हो कर पूजा के लिए जा रही थी लेकिन ऐसा लगता था कि किसी सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेने जा रही हों। मेरा कार्य स्थल आ चुका था। मैं रोज़ कि तरह बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त हो गया। आज मुझे शाम को 8 बजे से पहले ही घर वापिस पहुँचना अनिवार्य था। खैर फिलहाल 5 बजे थे तभी मेरे कानो में बहुत ही सुरीले और मधुर स्वर सुनाई पड़े सुथड़ा मनायीं ना, रूठड़ा जगायीं ना मैं समझ गया कि आस-पास कहीं पूजा हो रही है। लेकिन कितना सम्मोहन, भावुकता  और ऊर्जा थी उन स्वरों में। ऐसा केवल पारंपरिक लोक गीतों में ही दिखाई देता है। 7 बजे मैं  घर के लिए रवाना हो गया। मैंने रास्ते में से ही नारियल पानी ले लिया था। घर में चाँद निकलने का इंतज़ार हो रहा था। लगभग 8:25 पर चन्द्र देवता ने दर्शन दिये मेरी पत्नी ने छत पर जाकर चंद्र देवता को अर्ध्य दिया फिर मैंने पानी पिलवाकर व्रत तुड़वाया उसने मेरे पाँव छूए और फिर सदा क्रोधित रहने वाली मेरी पत्नी ने शांति की प्रतिमूर्ति बन सात्विक भाव से अपनी बाहों का हार मेरे गले में डाल दिया जैसे पीपल से अमरलता लिपटी हो।  इन चंद क्षणों के दो आत्माओं के सात्विक मिलन से मैं अपने सारे विकार भूल चुका था। हमने प्यार से मिलकर खाना खाया और सोने के लिए चले गए। नदी, सागर में समा चुकी थी। अगले दिन का सूर्योदय हो चुका था इस यथार्थ के साथ कि मेरी जिंदगी का एक करवा चौथ कम हो चुका था।

Sunday 15 November 2015

EGO VS SELF RESPECT



EGO VS SELF RESPECT


In terms of the psychologists, “ego” is our conscious mind, the part of our identity that we consider our "self." But I think it is simply our tendency to defend our mistakes and to stick on our stand by one or the other way even when we know that we are wrong. On the other hand ‘self respect’ is a tendency to stick on our basic and logical principals. Generally, people suffering with ‘ego’ think that they have a great self respect and stick to their stand but actually it is not true.  There are two main situations that lead to arrogance, one is when you're wrong and you can't face it; the other is when you're right and nobody else can face it.” The first one leads to ‘ego’ whereas 2nd leads to self respect. Now a day’s ‘ego’ is the main cause of sour relations in families, friends and at work place etc.  Several couples have been separated due to their ego though they have love and regards for each other.  They even do not know how it happened yet their inner voice doesn’t allow them to speak to one other. How beautifully the Great Poet Gulzar Sahib has expressed it “Unhen ye zid thi ke hum bulate, Humein ye ummid vo pukarein”. The weak people are dominated by their ego whereas the wise dominate their ego. We feel heart if someone does not pay us proper attention even without knowing the reasons which disturb our peace of mind.  As a children we hesitate to touch the feet of our parents. Generally we do not see a person with our true eyes but in flaws of our own egos. So our eyes become cloudy through which we see one other. Ego is like an acid which even burns the vessel in which it is kept. It is the greatest enemy and the greatest war to be won is to overcome our ego. If we love all human beings intensely enough, we must burn the cloudy layers of ego to live happily with great self respect.