Sunday 21 February 2016

‘हे माँ तेरी सूरत से अलग



हे माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी वाकई कितनी वास्तविकता है गीत की इस पंक्ति में। माँ एक ऐसा शब्द है जिसके सुनते ही मन में ममता का सागर उमड़ने लगता है।  यह माँ ही तो है जो पहले 9 महीने तक बच्चे को अपने गर्भ मे, फिर पाँच साल तक अपनी गोदी में, और आयुपर्यंत उसे अपने दिल में समाये रखती है। यही नहीं शरीर त्यागने के बाद भी अपने आशीर्वाद से बच्चे को हर कठिनाई से बचाती है। लेकिन कितने दुख की बात है कि हम  अक्सर माँ को उचित स्थान देने में असफल रहते हैं। हम कभी माता का जागरण करवाते हैं तो कभी कोई मन्नत मांगने माता के दरबार में जाते हैं। लेकिन अपनी देवी तुल्य माता को भूल बैठते हैं। किसी ने सत्य ही कहा है सुनते हैं माँ के पाँव के नीचे बहिश्त(स्वर्ग) है। माँ का त्याग, झूठ –सच, पूजा-पाठ सब संतान के हित के लिए होता है। हालांके माता, पिता एवं गुरु तीनों ही ईश्वर तुल्य हैं परंतु फिर भी माँ प्रथम गुरु होती है वह ही बालक को उसके पिता का परिचय करवाती है। आज के युग में बाकी सभी रिश्ते-नाते यथा भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, मित्र-बंधु सब सामयिक होते है और कहीं मोह बंधन से अथवा कहीं स्वार्थ तक सीमित होते हैं परंतु माता, पिता एवं गुरु का बंधन अटूट बंधन होता है।  यह माँ ही तो है जो स्वयं गीले में सोती है और बालक को सूखे में सुलाती है। यह माँ ही तो है जो स्वयं भूखी रह कर भी संतान को भूखा नहीं देख सकती। यह माँ ही तो है जो संतान के ज़रा सा बीमार होने पर तड़प उठती है और ईश्वर से प्रार्थना करती है कि है ईश्वर तू सारे दुख मुझे दे दे परंतु मेरी संतान पर कोई आंच न आए। बच्चा दूसरों को कैसा भी लगे परंतु माँ तो उसे बुरी नज़र से बचाने के लिए काला टीका भी ज़रूर लगाती है।माँ के हाथ का खाना भला कौन भूल सकता है क्योंकि उस में असीम प्यार भरा होता है।   पिता और गुरु का आशीर्वाद तो केवल अधिकारी संतान अथवा शिष्य के साथ ही रहता है परंतु माँ तो नालायक संतान को भी अपने कलेजे का टुकड़ा समझती है। बचपन में एक कहानी में पड़ा था कि एक बेटा अपनी माँ का कत्ल कर के जाने लगता है तो उसके पैर में ठोकर लग जाती है। उसी समय माँ के कलेजे में से आवाज़ आती है बेटा चोट तो नहीं लगी। सत्य ही कहा है, पूत कपूत सुने हैं पर न माता सुनी कुमाता। कितने अभागे हैं वो लोग जिनको माँ का प्यार नहीं मिलता। कोई भी सौभाग्यशाली व्यक्ति उस परम आनंद को नहीं भूल सकता जब कभी तकलीफ में माँ ने उस का सर गोदी में रख कर अपना आंसुओं से भरा आँचल ढक कर उसे प्यार से सहलाया हो। और माँ का क्रोध तो प्यार से भी अधिक नंदमयी होता है। भगवान राम एवं कृष्ण तो माँ की डांट खाने के लिए जानबूझ कर भी शरारतें करते थे। किसी शायर ने कहा है, कुछ इस तरह मेरे गुनाहों को धो देती है, माँ जब गुस्से में हो तो बस रो देती है
यद्यपि मेरे माता पिता ब्रह्मलीन हैं परंतु सुबह उनकी प्यार भरी यादों ने मेरे मन को झकझोर दिया। मेरी माता श्री भक्ति और त्याग की प्रतिमूर्ति थीं और पिताश्री एक सिद्ध पुरुष। यादों से ही प्रेम अश्रु धारा बह निकली और मैं कलम उठाने को बाध्य हो गया। यह लेख माता श्री के चरणों में ही उनके जन्म दिन  पर समर्पित।